Sunday, November 19, 2017

चाहत - 2

जब जब मैं तुमसेआज़ाद,
अकेले, इस दुनिया की
सैर करने की चाहत बाँटती हूँ,
तुम बस हँस कर
उसे टाल क्यों देते हो?
वैसे, जैसे मैने कोई
मज़ाक किया हो।
जब भी गर्मियों में
मैं बिना बाजू के
कपडे पहन कर बाहर जाती हूँ,
तुम मुझे ज़ोर से डाँट कर,
बदलने को क्यों कह देते हो?
शाम को अगर कॉलेज से
कभी, दोस्तों के साथ
घूमने जाना चाहूँ मैं,
तो तुम हमेशा,
बिना सुने ही,
जाने देना से
इंकार क्यों कर देते हो?
और अगर कभी ग़लती से
 तुम मान भी गए तो,
इतने नियम - क़ानून
क्यों थोप देते हो मुझ पर?
जानती हूँ के तुम्हे
मेरी फ़िक्र होती है,
पर अपनी फ़िक्र से
मेरी चाहतों को क्यों
घोट देते हो तुम?

अरे, खुली सांस लेने की आज़ादी,
और तुम सब के साथ
थोड़ी खुशियों भरी यादें
ही तो बटोरना चाहती हूँ मैं।
बड़ी हो गयी हूँ
और साथ ही,
मेरे सपने भी तो बड़े हो गए हैं;
उन्हें हासिल करने कि दौड़ में
मैं भी शामिल होना चाहती हूँ।

क्या सच-मुच कुछ
ज़्यादा चाहने लगी हूँ मैं ?


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