Thursday, November 16, 2017

चाहत

सर्दी की धुंधली सवेरों में,
हवाओं से बचते-टकराते,
खुले आसमान के नीचे,
मैं दौड़ना चाहती हूँ। 
मैं ऊँची आवाज़ों में
सुरीले-बेसुरे गाने गाते हुए,
बेधड़क नाचना चाहती हूँ;
खुल कर, पेट पकड़ कर,
ज़मीं पे लोट-पोट होकर,
हँसना-हँसाना चाहती हूँ मैं।
किसी ऊंचे पहाड़ की
चोटी पे चढ़कर,
मैं वहां से गिरने के
डर को भुलाकर,
उस नज़ारे को अपनी आँखों में
कैद कर लेना चाहती हूँ।
किसी के साथ घंटों बैठ कर
अपने दिल की बातें करना चाहती हूँ,
और जानना चाहती हूँ कि
की क्या वो भी यही चाहती है?
मैं किसी का सहारा, और
किसी के ख़ुशी की
वजह बनना चाहती हूँ।
और जब ये सब कर के
मैं थक जाऊँ , तब,
अपनी माँ की गोद का
सुकून चाहती हूँ।

क्या मैं कुछ,
ज़्यादा चाहने लगी हूँ?


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