Tuesday, May 8, 2018

ईद का चाँद या चाँद का ईद?



"दिल लगाने से लग जात है
समझ आने लगा है ये कुछ कुछ अब,
आँखें मूंद लेने से  
सब ठीक हो जाता है 
मानने लगे हूँ मैं ये भी. 
जानते हो क्यूँ?
क्योंकि तुमने अंजाने में ही सही, 
यही तो सिखाया है मुझे. 
तुम वो हो  
जिसका नाम अपनी स्क्रीन पे
फ्लॅश होता देख, 
एक चंकान भरी मुस्कान आ जाती है. 
तुम ऐसे हो जैसे वो पेड़
जिसकी डाली पर बैठना 
इतना पसंद था मुझे
की गिर के हाथ की हड्डी के 
टूट जाने के बावजूद भी मैं 
उसपे अक्सर बैठने जाती थी. 
इतने शांत, इतना धैर्य,
इतने स्थिर हो तुम,
जैसे खुद आसमान पे चढ़ कर
ध्रुव से थोड़ा उधार माँग लाए हो. 
जैसे सूरज के पैरों पर पड़े 
छालों पर मरहम लगाने 
चाँद से थोड़ी सी चाँदनी चुरा लाए हो. 
जैसे मुझे मुझी के दिए ज़ख़्मों से
आज़ाद करवाने आए हो. 
तुम ना वैसे हो 
जैसे मैं सोचती थी के
कोई बना ही नहीं होगा. 
बिल्कुल पानी की लहरों की तरह. 
जिसके आर पार सब दिखता हो, 
जिसके भीतर बाहर सब एक सा हो, 
जिसके किनारे बैठे, 
जिसमें पैरों को डुबाए
हर शाम गुज़ारने को दिल करता हो. 
तुम अभी मेरी ईद हो, 
क्या मेरा चाँद भी बन जाओगे?"

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